शैक्षिक प्रबंध के सिद्धांत (Principle of education management)
1. समन्वय का सिद्धांत - आर्थिक, भौतिक और मानवीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग का समन्वय का कार्य भी प्रबंध को करना पड़ता है। शैक्षिक प्रबंध में अपने अधीनस्थों में सहयोग की भावना का विकास करना बहुत आवश्यक है। विद्यालय की भौतिक प्रगति हेतु प्रबंध ही आर्थिक सहायता प्राप्त कराता है। प्रशासनिक अधिकारियों से अच्छे संबंध स्थापित कर विद्यालय के लिए साधन एवं सुविधाएं उपलब्ध कराना भी इसी सिद्धांत के अंतर्गत आता है। अतः समन्वय के सिद्धांत से अभिप्राय है कि शिक्षा से संबंधित विभिन्न पक्षों में समन्वय होना चाहिए।
2. आदेश का सोपानिक सिध्दांत(पद सोपान का सिद्धांत) - इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक शैक्षिक प्रबंध में ऊपर से नीचे एक औपचारिक अधिकारों व संबंधों की रेखा पूर्णतया स्पष्ट होना आवश्यक है। प्रबंध का प्रत्येक सदस्य को इस बात का पूरा ज्ञान होना चाहिए कि उसका अन्य सदस्यों के साथ क्या संबंध है और वे किसी अधीनता में कार्य करेंगे।
3. लोच का सिद्धांत - यह सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि प्रबंध कठोर न होकर लोचदार होना चाहिए ताकि उसे आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सके।
4. नियोजन का सिद्धांत - शैक्षिक प्रबंध का प्रथम सिद्धांत नियोजन का सिद्धांत है अर्थात जो भी कार्य विद्यालय में प्रारंभ किया जाए वह योजनाबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए। सत्र प्रारंभ होने से पूर्व ही विद्यालय की शैक्षिक कार्य (वार्षिक योजना, मासिक योजना, देनिक योजना आदि) वित्त कार्य, स्टाफ की व्यवस्था आदि की योजना बना लेनी चाहिए ताकि सत्रारंभ के प्रथम दिवस से ही नियमित रूप से कार्य प्रारंभ किया जा सके।
5. औपचारिकता का सिद्धांत - इस सिद्धांत के अनुसार विद्यालय में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि उसका कार्य है, वह किसके प्रति उत्तरदायी हैं तथा अन्य शब्दों में उसे प्रबंध के औपचारिक ढांचे का ज्ञान होना चाहिए।
6. आदेश की एकता - इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि किसी कर्मचारी को केवल एक वरिष्ठ से आदेश मिलना चाहिए। आदेश की एकता की संकल्पना के लिए यह आवश्यक है कि प्रबंध का प्रत्येक सदस्य केवल एक नेता को रिपोर्ट करें। शैक्षिक प्रबंध में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि किसी भी विद्यालय में कार्यरत अध्यापक तथा अध्यापिकाओं के ऊपर एक वरिष्ठ अधिकारी हो,
वह किस के आदेशों का पालन करें। इस सिद्धांत का उल्लंघन तभी होता है। जब कोई कर्मचारी एक एवं उसी मामले में एक से अधिक वरिष्ठों के आदेश पाता है।
7. अपवाद का सिद्धांत - यह सिद्धांत बतलाता है कि दैनिक व सामान्य कार्यों के निष्पादन का अधिकार अधीनस्थों को दे दिया जाना चाहिए और अधीनस्थों को केवल अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों एवं अपवाद-जनक स्थितियों में ही उच्च अधिकारियों से पूछताछ करनी चाहिए।
8. अनुरूपता का सिद्धांत - यह सिद्धांत इस तथ्य पर जोर देता है कि समान दायित्व वाले सदस्यों के अधिकार भी समान होने चाहिए ताकि आवश्यक मतभेद उत्पन्न ना हो और कार्य निष्पादन में एकरूपता आ सके।
9. अधिकार व दायित्व का सिद्धांत - यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि अधिकार व दायित्व साथ-साथ चलते हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब भी किसी कर्मचारी का कोई दायित्व सौंपा जाए तो उसे अपना दायित्व निभाने हेतु पर्याप्त अधिकार भी दिए जाने चाहिए, अधिकार व दायित्व में संशोधन होना चाहिए। इसलिए इसे अधिकार व दायित्व में समता का सिद्धांत भी कहते हैं।
10. निर्देशन का सिद्धांत - शैक्षिक प्रबंध में निर्देशन का सिद्धांत भी है। संगठनों में निर्देशन बहुत आवश्यक है। निर्देशन के अभाव में उद्देश्यों की प्राप्ति संभव नहीं हो पाती हैं।
11. कुशलता का सिद्धांत - कूण्टज एवं डोनेल ने कहा कि संगठन को अपने पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को न्यूनतम लागत पर प्राप्त करने में समर्थ होना चाहिए। दूसरे शब्दों में संगठन को सफलतापूर्वक काम करना चाहिए।
12. नियंत्रण के विस्तार का सिद्धांत - यह सिद्धांत अधीनस्थों की संख्या निश्चित करता है ताकि उनका नियंत्रण भली प्रकार किया जा सके। ग्रेकुनरन के अनुसार यह संख्या 5 से 6 हैं। कर्नल उर्विक के अनुसार संगठन के उच्च स्तर पर अधीनस्थों की आदर्श संख्या 4 है और निम्न स्तर पर 8 से 12 है।
13. संतुलन का सिद्धांत - संगठन का विभिन्न विभागों के कार्य तथा कर्मचारियों के अधिकारों व दायित्व में भी संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए ताकि उनमें परस्पर संघर्ष, मतभेद व मनमुटाव उत्पन्न न हो सके।
शैक्षिक प्रबंध के कार्य -
1. नियोजन - योजना के अभाव में कोई भी कार्य मितव्ययिता और सुचारू रूप से नहीं किया जा सकता है। अतः कोई कार्य करने से पूर्व उसके समस्त पहलुओं पर विवेकपूर्ण विचार करके योजना बनाना आवश्यक होता है। प्रबंध का सर्वप्रथम कार्य प्रशासन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए योजना बनाना है। इसके अंतर्गत उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारण उत्पादन की विधि का निर्धारण भावी बिक्री का अनुमान, माँग के अनुरूप उत्पादन की मात्रा का निर्धारण, श्रमिकों, कच्चे माल, यंत्र एवं संयंत्रों तथा भण्डारगृहो की आवश्यकताओं का अनुमान लगाना तथा संभावित वित्तीय स्रोतों को ढूंढना आदि कार्य आते हैं। एक व्यवसायिक उपक्रम में कई प्रकार का नियोजन किया जाता है, जैसे-अल्पकालीन नियोजन, दीर्घकालीन नियोजन, पूंजी नियोजन, विक्रय नियोजन आदि।
2. संगठन - प्रबंध प्रक्रिया में नियोजन के पश्चात संगठन का स्थान है क्योंकि नियोजन के अंतर्गत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए श्रम, पूंजी, मशीन, कच्चा माल आदि जुटाने होते हैं। इनके प्रभावपूर्ण उपयोग एक अच्छे संगठन या तंत्र द्वारा ही संभव है। किसी भी उपक्रम में सफलता बहुत कुछ इसी तथ्य पर निर्भर करेगी कि उस उपक्रम की संगठन संरचना योजना लक्ष्यों के अनुरूप की गई है या नहीं।
3. निर्देशन - एक उपक्रम में लक्ष्यों के अनुरूप संगठन संरचना व आवश्यक नियुक्तियां कर लेने के बाद आवश्यकता होती हैं, कर्मचारियों को दिशा-निर्देश प्रदान करने की, ताकि वे लक्ष्य की ओर बढ़ सके। इस प्रकार निर्देशन प्रबंधकीय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण चरण के रूप में प्रबंध का एक प्रमुख कार्य है।
निर्देशन में नेतृत्व भी शामिल है। उच्च प्रबंध के अंतर्गत नेतृत्व क्षमता भी होनी चाहिए जिसके द्वारा वह अन्य कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त कर सकता है अच्छा नेतृत्व अपने अधीनस्थों में वफादारी तथा हितों की भावना भर देता है और इस प्रकार उनसे कार्य में पूर्ण सहयोग प्राप्त करता है तथा उद्देश्य प्राप्त करने में सफल होता है।
4. नियुक्तियाँ - एक उपक्रम में संगठन संरचना का निर्धारण हो जाने के बाद आवश्यकता होती है उस संगठन में सृजित विभिन्न पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्तियों की। नियुक्तियों का यह कार्य भी प्रबंधकीय कार्य है और इसी प्रक्रिया का भाग है।
5. अभिप्रेरण - अभिप्रेरणा प्रबंध का एक प्रमुख कार्य हैं। यद्यपि अभिप्रेरणा का कार्य निर्देशन या नेतृत्व का ही एक भाग है परंतु अधिकांश प्रबंधशास्त्री आधुनिक समय में अभिप्रेरणा के महत्व को स्वीकारते हुए इसको प्रबंध पृथक कार्य के रूप में ही प्रदर्शित करते हैं। प्रत्येक उपक्रम में उत्पादन प्रक्रिया में भौतिक तथा मानवीय संसाधनों का उपयोग किया जाता है। परंतु इन दोनों में भी मानवीय संसाधन ही अधिक महत्वपूर्ण है जो वास्तव में भौतिक संसाधनों का प्रयोग संभव बनाते हैं। इसलिए श्रमिकों एवं कर्मचारियों को कार्य के लिए अभिप्रेरित करना प्रबंधको की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य बन जाता है। कुशल निर्देशन या नेतृत्व वही माना जाता है जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के मनोबल को ऊंचा रखकर उन्हें उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अभिप्रेरित कर सके।
6. समन्वय - कुछ प्रबंधशास्त्री समन्वय को प्रबंध का कार्य मानते हैं तो कुछ अन्य इसे प्रबंध का सार मानते हैं। परंतु इसे जो कुछ भी माना जाए, यह अवश्य है कि उपक्रम के कुशल संचालन के लिए उपक्रम के विभिन्न विभागों व उप-विभागों के मध्य समन्वय किया जाना आवश्यक है। अन्यथा परिणाम असंतोषजनक होंगे और लक्ष्य प्राप्त कर पाना असंभव होगा।